गुरु गोविन्द सिंह का जीवन परिचय
गुरु गोविन्द सिंह जी सिखों के दसवें गुरु थे इन्हें अंतिम गुरु कहा जाता है और वे खालसा के सृजन के लिए प्रसिद्ध है गुरु गोविन्द सिंह का जीवन परिचय स्वर्णीय अछरो में लिखा गया है इनका जन्म नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी और माता गुजरी के घर पटना में हुआ था 22 दिसंबर सन् 1666 को गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म हुआ बालक के जन्म पर धूम धाम से उत्सव मनाया गया गोविन्द जी बचपन में शरारती थे लेकिन वे अपनी शरारतों से किसी को परेशान नहीं करते थे गोविन्द जी एक निस्संतान बूड़ीया के साथ बहुत शरारत करते थे जो सूत काटकर कर अपना गुज़ारा करती थी
गोविन्द जी उसकी सारी पुनिया बिखेर देते थे इससे दुखी होकर उनकी माँ के पास वह बुढ़िया शिकायत लेकर पहुच जाया करती थी माता गुजरी पैसे देकर उस बुढ़िया को खुश कर देती थी जब माता गुजरी ने गोविंद से बुढ़िया को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने सहज भाव से कहा मै उसकी गरीबी दूर करने के लिए शरारत करता हूँ अगर मैं उसे परेशान नहीं करूँगा तो आप उसे पैसे कैसे देगी
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इनका मूल नाम गोविंद राय था गोविंद राय बालक को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें महान भौतिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी गोविन्द सिंह जी बहुभाषा विद थे उन्हें फारसी अरबी, संस्कृत और अपनी मातृभाषा का अच्छा ज्ञान था पटना में जिंस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होंने अपने प्रथम चार वर्ष बिताए वहीं पर अब तख्त श्री हरमिंदर जी पटना साहिब स्थित है सन 1670 में उनका परिवार पंजाब आ गया मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित चक नानकी नामक स्थान पर आ गया चक नानकी ही आजकल आनंदपुर साहिब कहलाता है यहीं पर इनकी शिक्षा आरंभ हुई उन्होंने फारसी और संस्कृत की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिये सैन्य कौशल सीखा खिलौनों से खेलने की उम्र में गोविन्द जी कृपाण कटार और धनुष बाण से खेलना पसंद करते थे |
दसवें गुरु घोषित हुए
जब कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाए जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर गुरु तेग बहादुर जी के दरबार में लोग आए तब गुरु तेग बहादुर जी ने उनकी बात सुनी कश्मीरी पंडितों ने कहा कि उनके सामने औरंगजेब ने यह शर्त रखी है कि हैं कोई ऐसा महापुरुष जो इस्लाम स्वीकार ना करें और अपनी जान दे दें अगर ऐसा कोई महापुरुष वास्तव में है तो आप सबका धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी यह सब सुन रहे थे उस समय गुरु गोविंद सिंहजी 9 साल के थे
उन्होंने पिता तेग बहादुर जी से कहा आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है वहाँ मौजूद सभी लोग स्तब्ध हो गए कश्मीरी पंडितों की फरियाद सुनकर और अपने बालक की बात सुनकर गुरु तेग बहादुर जी सोचने पर मजबूर हो गए और उन्होंने इस बात को कबूल कर लिया कि वे जान दे देंगे लेकिन इस्लाम कबूल नहीं करेंगे इस्लाम ना स्वीकार करने के कारण औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में सार्वजनिक रूप से गुरु तेग बहादुर जी का सिर कटवा दिया इसके बाद मात्र नौ वर्ष की उम्र में गोविंद राय सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए दसवें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही शिक्षा के अंतर्गत उन्होंने लिखना पढ़ना घुड़सवारी तथा सैन्य कौशल सीखें
गुरु गोविंद जी का वैवाहिक जीवन
गुरु गोविंद राय जी की तीन पत्नियां थीं इनका पहला विवाह मात्र 10 वर्ष की आयु में हो गया था इनकी पहली पत्नी का नाम था माता जीतो था और जब ये 17 वर्ष के हुए तो इनका दूसरा विवाह हुआ माता सुंदरी के साथ और 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से तीसरा विवाह किया इनकी पहली पत्नी से इनके तीन पुत्र थे जिनके नाम थे जुझार सिंह, जोरावर सिंह, और फतेह सिंह दूसरी पत्नी माता सुंदरी से इनको एक बेटा हुआ जिसका नाम था अजीत सिंह इनकी तीसरी पत्नी से कोई संतान नहीं थी लेकिन सिख पंथ के पन्नों पर उनका दौर भी बहुत प्रभावशाली है |
अपने राज्य निवासी को स्थानांतरित किए
सन 1685 में सिरमौर के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरु गोविन्द राय ने अपने निवास को सिरमौर राज्य से पांवटा शहर में स्थानांतरित कर दिया था जैसा कि हम सब जानते हैं गोविन्द जी के समय भारत पर औरंगजेब का शासन था जो कि जबरन धर्म परिवर्तन में यकीन रखता था सन 1687 में नादौन की लड़ाई में गुरु गोविंद सिंह भीम चंद और अन्य मित्र राजाओं की सेनाओं ने अलीब खान और उनके सहयोगियों की सेनाओं को हरा दिया था फिर बंगानी के युद्ध के कुछ दिन बाद बिलासपुर की विधवा रानी चम्पा ने गुरूजी से आनंदपुर साहिब वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार कर लिया वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुँच गए
दिलावर खान के बेटे द्वारा आनंदपुर पर हमला
सन 1695 में लाहौर के मुगल मुखिया दिलावर खान ने अपने बेटे हुसैन खान को आनंदपुर साहिब पर हमला करने के लिए भेजा मुगल सेना हार गई और हुसैन खान मारा गया हुसैन की मृत्यु के बाद दिलावर खान ने अपने आदमियों जुझार हांडा और चंदेल राय को शिवालिक भेज दिया हालांकि वे जस्वाल के घर सिंह से हार गए थे पहाड़ी क्षेत्र में इस तरह के घटनाक्रम मुगल सम्राट औरंगजेब के लिए चिंता का कारण बन गए हैं और उसने क्षेत्र में मुगल अधिकार बहाल करने के लिए सेना को अपने बेटे के साथ भेजा
गुरु गोविंद द्वारा खालसा पंथ की स्थापना / अमृतपान
गुरु गोविंद जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया लेकर आया था उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की खालसा पंथ की स्थापना गुरु गोविंद सिंह ने सन 1699 को बैसाखी वाले दिन आनंदपुर साहिब में की थी इस दिन उन्होंने सबसे पहले पांच प्यारों को अमृत पान करवाकर खालसा बनाया और उसके बाद उन पांच प्यारों के हाथ से स्वयं भी अमृतपान किया
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सत गुरु गोविंद जी ने खालसा महिमा में खालसा को काल पुरख की फौज इस पद से नवाजा है इसी दिन खालसे के नाम के पीछे सींग लग गया अब गुरु गोविंद राय गुरु गोविंद सिंह बन चूके थे गुरु गोविन्द सिंह जी ने इसी दिन एक और नई परंपरा को भी जन्म किया सभी प्रकार की ऊँच नीच और भेदभाव को दूर करने के लिए उन्होंने आदेश दिया कि सभी सिख पुरुष अपने नाम के आगे सिंग लगाएंगे और सभी स्त्रियां अपने नाम के आगे कौर लगाएंगे सिंह का मतलब शेर जैसा निडर पुरुष और कौर का मतलब राजकुमारी स्त्री जो साहस से भरपूर हो
पांच ककार पंज प्यारे
उन्होंने युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए सिखों के लिए पांच ककार अनिवार्य घोषित किए जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है ये पांच ककार है केश कंघा कच्चा कड़ा और कृपाण सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा कौन अपने सिर का बलिदान देना चाहता है उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राजी हो गया और गुरु गोविन्द सिंह जी उसे तम्बू में ले गए पर कुछ देर बाद वापस लौटे खून लगी हुई तलवार के साथ गुरूजी ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पूछा फिर एक व्यक्ति राजी हुआ वह भी उनके साथ गया और जब गुरूजी तंबू से बाहर निकले तो उनकी तलवार खून से सनी हुई थी इसी प्रक्रिया को उन्होंने पांच बार दोहराया थोड़ी देर बाद गुरूजी उन सभी पांचों जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने इन्हीं को पंज प्यारे अर्थात पहले खालसा का नाम दिया
गंगू सेवक की लालच
गुरु जी और उनके समर्थकों को मुगल सेनाए निरंतर परेशान कर रही थी इसी दौरान एक बार जब गुरूजी अपने समर्थकों के साथ आनंदपुर साहिब छोड़कर आगे बढ़ रहे थे उस दौरान सरसा नदी पर बाढ़ आई हुई थी सरसा नदी पर जब गुरु गोबिंद सिंह जी परिवार से जुदा हो रहे थे तो एक और जहाँ दोनों बड़े साहिब जादे गुरु जी के साथ चले गए वहीं दूसरी ओर दोनों छोटे साहिब जादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह माता गुजरी जी के साथ रह गये
उनके साथ कोई सैनिक भी नहीं था और ना कोई उम्मीद उस समय गुरु महल की सेवा गंगू नामक एक व्यक्ति करता था गंगू ने माता गुजरी और बच्चों को आश्वासन दिया कि वह उन्हें उनके परिवार से मिलाएगा और तब तक के लिए वे लोग उसके घर में रुक जाए वे गंगू की असलियत से वाकिफ नहीं थे गंगू ने लालच में आकर तुरंत वजीर खां को गोविन्द सिंह की माता और छोटे साहिब जादों के अपने यहाँ होने की खबर दे दी जिसके बदले में वजीर खां ने उसे सोने की मोहरें दी वजीर खां के सैनिक माता गुजरी साहिब जादा जोरावर सिंह और साहिब जादा फतेह सिंह को गिरफ्तार करके गंगू के घर से ले गए
जोरावर / फतेह सिंह को दीवार में क्यों चुना गया
उन्हें एक ठंडे बुर्ज में रखा गया और ठिठुरती ठंड से बचने के लिए कपड़े का एक टुकड़ा तक नहीं दिया दिसंबर का महीना था ठंड अपने पूरे जोरों पर थे उस समय साहिब जादा जोरावर सिंह की आयु सात वर्ष की थी और साहिब जादा फतेह सिंह की आयु केवल पांच वर्ष की थी रातभर ठंड में ठिठुरने के बाद सुबह होते ही इन दोनों साहिब जादों को वजीर खां के सामने पेश किया गया जहाँ भरी सभा में उन्हें इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया सभा में बिना किसी हिचकिचाहट के दोनों बच्चों ने ज़ोर से जयकारा लगाया जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल यह देखकर सब दंग रह गए वजीरखां की मौजूदगी में ऐसा करने की हिम्मत किसी की भी नहीं थी सभा में मौजूद मुलाजिमों ने साहिबजादों को बजीरखां के सामने सिर झुकाने के लिए कहा
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लेकिन बालकों ने सिर झुकाने से मना कर दिया दोनों ने सिर ऊंचा करके जवाब दिया हम अकाल पुरख और अपने पिता गुरु के अलावा किसी के भी सामने सिर नहीं झुकाते ऐसा करके हम अपने दादा की कुर्बानी को बर्बाद नहीं होने देंगे यदि हमने किसी के सामने सिर झुकाया तो हम अपने दादा को क्या जवाब देंगे जिन्होंने धर्म के नाम पर सिर कलम करवाना सही समझा लेकिन झुकना नहीं वजीरखां ने दोनों बच्चों को बहुत डराया लेकिन बच्चे अपने निर्णय पर अटल थे आखिरकार दोनों साहिबजादों को जिंदा दीवार में चुनवा ने का ऐलान किया गया कहा जाता है दोनों साहिबजादों को जब दीवार में चुनना आरंभ किया गया तब उन्होंने जपुजी साहिब का पाठ करना शुरू कर दिया और दीवार पूरी होने के बाद भी अंदर से जयकारा लगाने की आवाज आई माता गुजरी जी यह सदमा बर्दाश नहीं कर पाई और बेहोश हो गई और फिर उनका निधन हो गया
अजीत सिंह जी की वीरता का प्रमाण
गोविन्द सिंह जी के साथ उनके दोनों बड़े बेटे थे चमकौर के युद्ध में गुरु जी के सबसे बड़े पुत्र अजीत सिंह अतुलनीय वीरता का प्रदर्शन करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए तलवारबाजी में पूरी सिख फौज में अजीत सिंह का मुकाबला कोई नहीं कर सकता था अजीत सिंह ने मुगल सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे लड़ते लड़ते जब उनकी तलवार टूट गई थी तो उन्होंने अपने म्यान से ही लड़ना शुरू कर दिया था और वे आखिरी सांस तक लड़ते रहे 17 वर्ष की उम्र में वे शहीद हो गए इनके नाम पर पंजाब के मोहाली शहर का नामकरण साहिबजादा अजीत सिंह नगर किया गया
अजीत सिंह के छोटे भाई जुझार सिंह भी युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए साहिबजादा जुझार सिंह मात्र 13 वर्ष की आयु में वीरगति को प्राप्त हो गए इस तरह गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों बच्चों को इतिहास में चार साहिबज़ादे के नाम से याद किया जाता है अब गुरूजी ने ऑरंगजेब को एक सफरनामा भिजवाया यानी कि विजय की चिट्ठी जिसमें उन्होंने औरंगजेब को चेतावनी दी कि तुम्हारा साम्राज्य नष्ट करने के लिये खालसा पंथ तैयार हो गया है दिसंबर 1704 में गुरूजी ने अपने चारों बच्चों को खो दिया था लेकिन उनके हौसलों में कोई कमी नहीं आई थी मई 1705 में मुक्तसर नामक स्थान पर सिखों का मुगलों से भयानक युद्ध हुआ जिसमें गुरु जी की जीत हुई बाद में जब गुरूजी दक्षिण गए
गुरु गोविंद सिंह जी की मृत्यु कब और कैसे हुई
गुरु जी उस दक्षिण की ओर गए हुए थे तब उन्हे औरंगजेब की मृत्यु का पता चला औरंगज़ेब ने मरते समय एक शिकस्त पत्र लिखा था हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था यानी गुरूजी वे फ़तेहनामा लिख रहे थे और जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा था औरंगजेब की मृत्यु के बाद गुरु जी ने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की गुरूजी और बहादुर शाह के संबंध अच्छे थे इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीर खान घबरा गया और उसने दो पठान गुरूजी के पीछे लगा दिए इन पठानों ने गुरूजी पर धोखे से घातक वार किया जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरूजी नांदेड़ साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए अंत के समय इन्होंने सिखों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा और खुद भी माथा टेका
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गुरु जी के बाद माधव दास ने जिसे गुरु जी ने सिख बनाया था बंदा सिंह बहादुर राम दिया था उसने सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी गुरूजी ने सिख कानून को सूत्रबद्ध किया था काव्य रचनाएं भी की थी और सिख ग्रंथ दसम ग्रंथ यानी दसवां खंड लिखकर प्रसिद्धि पाई थी उन्होंने कहा था मुझे परमेश्वर ने दुष्टों का नाश करने और धर्म की स्थापना करने के लिए भेजा है गुरु गोविंद सिंह ने अपना अंतिम समय निकट जानकार अपने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने देश से प्रेम करने और सदा दीन दुखियों की सहायता करने की सीख दी इसके बाद उन्होंने यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और गुरु ग्रंथ साहिब ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्गदर्शन करेंगे जैसा कि मैंने बताया कि गुरु गोबिंद सिंह जी की मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़ महाराष्ट्र में हुई थी गुरु गोविन्द सिंह जी की कही बात जग प्रसिद्ध है
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चिड़ियों से मैं पांच लड़ाऊं गीदड़ों को मैं शेर बनाऊं 1,25,000 से एक लड़ाऊं तभी गोविंद सिंह नाम कहाऊं गुरु गोविन्द सिंह जी की रचनाओं ने चार साहेब अकाल उस तक बचित्र नाटक चंडी चरित्र छात्र नाममाला हथलपकियाँ चरित्र लिखे थे जफरनामा खालसा नामा आदि महत्वपूर्ण है
दोस्तों मै आशा करता हूँ कि गुरु गोविन्द सिंह का जीवन परिचय कि जानकारी आप को अछि लगी होगी अगर आपको अछि लगी है तो हमें कमेंट के जरिये जरुर बताये
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